Sunday, April 12, 2020

अपने ख़िलाफ़ फैसला ख़ुद ही लिखा

अपने ख़िलाफ़ फैसला ख़ुद ही लिखा है आपने
हाथ भी मल रहे हैं आप, आप बहुत अजीब हैं


अब नहीं बात कोई ख़तरे की
अब सभी को सभी से ख़तरा है



कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फासले से मिला करो




ये जो मिलाते फिरते हो तुम हर किसी से हाथ
ऐसा न हो कि धोना पड़े जिंदगी से हाथ




हाल पूछा न करे हाथ मिलाया न करे
मैं इसी धूप में खुश हूं कोई साया न करे




आंख भर देख लो ये वीराना
आजकल में ये शहर होता है




चहकते बोलते शहरों को क्या हुआ नासिर
कि दिन को भी मिरे घर में वही उदासी है



एक ही शहर में रहना है मगर मिलना नहीं
देखते हैं ये अज़ीय्यत भी गवारा करके







कौन तन्हाई का एहसास दिलाता है मुझे
यह भरा शहर भी तन्हा नज़र आता है मुझे






रास्ते हैं खुले हुए सारे
फिर भी ये ज़िंदगी रुकी हुई है




बे-नाम से इक ख़ौफ़ से क्यों दिल है परेशां
जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा




हम को यारों ने याद भी न रखा
जौन यारों के यार थे हम भी





आंखों में उड़ रही है लुटी महफ़िलों की धूल
इबरत सराए दहर है और हम हैं दोस्तो




घर में ख़ुद को क़ैद तो मैंने आज किया है
तब भी तन्हा था जब महफिल-महफिल था मैं



घर तो ऐसा कहां का था लेकिन
दर-बदर हैं तो याद आता है




बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं मां तेरी यह उम्र तो आराम की थी




रात को दिन से मिलाने की हवस थी हमको
काम अच्छा न था अंजाम भी अच्छा न हुआ





थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते-करते
कुछ और थक गया हूं आराम करते-करते





मिल बैठ के वो हंसना वो रोना चला गया
अब तो कोई ये कह दे करोना चला गया